मौर्य वंश का संपूर्ण इतिहास, मौर्य साम्राज्य, मौर्य काल का इतिहास

Maurya Vansh Ka Itihash

मौर्य वंश का संपूर्ण इतिहास – यदि आप मौर्य साम्राज्य का इतिहास जानना चाहते हैं तो आप सही पोस्ट पर आए हैं इस पोस्ट को पढ़कर आप मौर्य वंश का इतिहास और मौर्य साम्राज्य से संबंधित संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं इस पोस्ट में मौर्य वंश के शासकों और मौर्य वंश की स्थापना से लेकर मौर्य वंश के पतन तक की संपूर्ण जानकारी विस्तार पूर्वक दी गई है जिसको पढ़ कर आप मौर्य वंश के बारे में अच्छे से जान सकते हैं।

मौर्य वंश का संपूर्ण इतिहास

Maurya Vansh – दोस्तों ईसा पूर्व 326 में सिकंदर ने भारत पर आक्रमण कर भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र जीत लिया लेकिन मगध पर आक्रमण करने से पहले ही उसके सैनिकों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया और सिकंदर को मजबूरन अपना अभियान अधूरा छोड़ना पड़ा सिकंदर का यह अभियान तो अधूरा रहा लेकिन भारत के बिखरे असंगठित शासकों के लिए एक भारी शब्द साबित हुआ विदेशी आक्रमण से अपनी भूमि और संस्कृति की रक्षा करने के लिए भारत में संगठित शक्ति की आवश्यकता को आचार्य चाणक्य ने पहचाना।

और चंद्रगुप्त मौर्य की सहायता से उन्होंने मगध में सत्ता का परिवर्तन किया इसी वृद्धि पर आधारित चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य से जुड़ी कई सारी किवदंतियां आज भी लोगों में प्रचलित है लेकिन इतिहास की दृष्टि से इस विषय को समझने के लिए हमें समकालीन साहित्यिक स्रोतों को जानना और पुरातात्विक स्रोतों के माध्यम से उनकी पुष्टि करना बहोत ही आवश्यक हो जाता है इसीलिए यदि हम साहित्यिक स्रोतों की बात करें तो इस काल के संदर्भ में हमें कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज का इंडिका, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस और बौद्धग्रंथ दीप वंश एवं वंश और जी ग्रंथ के माध्यम से काफी जानकारी प्राप्त होती है।

इसी के साथ अशोक के स्तंभ, अशोक के शिलालेख, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, मौर्यकालीन भवन, स्तूप, गुफाएं और मृदभांड इन पुरातात्विक स्रोतों के माध्यम से प्राप्त जानकारी की पुष्टि होती है।

मौर्य वंश की स्थापना

विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस के अनुसार तक्षशिला के आचार्य चाणक्य जिन्हें हम कौटिल्य तथा विष्णुगुप्त के नाम से भी जानते हैं उन्हें नंद वंश के आखिरी और अत्याचारी शासक धनानंद ने भरे दरबार में अपमानित किया अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए चाणक्य ने नंद वंश को समूल नष्ट करने का प्रण लिया और इस प्रण को पूर्ण करने के लिए उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य नामक वीर्य युवक का सहारा लिया शुद्र कुल में जन्मे चंद्रगुप्त को चाणक्य ने राजनीति की शिक्षा दी और उसी से प्रेरित होकर चंद्रगुप्त ने सैन्य शक्ति का गठन किया।

महावंशटीका के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने आरंभ में सीधे नंद साम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया किंतु शीघ्र ही उन्हें अपनी कमियों का पता चल गया और फिर उन्होंने अपनी नीतियों में बदलाव करते हुए सीमांत प्रदेशों से नई आक्रमण की नीति को अपनाया उन्होंने हिमालय प्रदेश के राजा प्रवर्तक के साथ संधि करके सर्वप्रथम उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र अर्थात पंजाब को जीता और वहां पर अपनी स्थिति को मजबूत किया यूनानी इतिहासकार प्लुटार्क के अनुसार सिकंदर के भारत अभियान के दौरान चंद्रगुप्त ने उसे नंदू के विरुद्ध युद्ध के लिए भड़काया था।

तो ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के अनुसार 330 ईसा पूर्व में सिकंदर की मृत्यु के पश्चात चंद्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियान को तुरंत ही प्रारंभ किया था प्लुटार्क ने चंद्रगुप्त मौर्य का वर्णन एंडोकोट्स तो जस्टिन ने चंद्रगुप्त मौर्य का वर्णन सेंन्ड्रोकोटस नाम से किया है इन दोनों इतिहासकारों की विवरण से हमें एक बात का तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य शुरू से ही संपूर्ण भारत को नंदो और यवनों के अत्याचार से मुक्त करना चाहता था और इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उसने 322 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र को घेर लिया।

और धनानंद को परास्त कर अपने आपको को मगध के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य की इसी राजनीतिक सफलता का अभूतपूर्व वर्णन किया गया है विशाखदत्त ने इस नाटक में नंद वंश का नाश चंद्रगुप्त मौर्य का राजा रोहन मंत्री राक्षस का सक्रिय विरोध चाणक्य की राजनीति और अंततः मंत्री राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के प्रभुत्व की स्वीकृति का रोचक वर्णन किया है।

मौर्य वंश के शासक

शासकशासन काल
चंद्रगुप्त मौर्य322-298 ईसा पूर्व
बिन्दुसार298-272 ईसा पूर्व
अशोक बिंदुसार मौर्य273-232 ईसा पूर्व
दशरथ मौर्य232-224 ईसा पूर्व
संप्रति मौर्य224-215 ईसा पूर्व
शालिसुक मौर्य215-202 ईसा पूर्व
देववर्मन202-195 ईसा पूर्व
शतधन्वन मौर्य195-187 ईसा पूर्व
ब्रहद्रथ मौर्य187-185 ईसा पूर्व
मौर्य वंश के शासक कौन कौन थे?

मौर्य वंश के शासकों का इतिहास

चंद्रगुप्त मौर्य

मगध पर मौर्य वंश की स्थापना करने वाले चंद्रगुप्त मौर्य को मुद्राराक्षस सहित पुरान आदि ब्राह्मण साहित्य में शूद्र कुल का माना गया है लेकिन बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में उन्हें ‘मोरिय क्षत्रिय’ कहा गया है 322 ईसा पूर्व में केवल 25 वर्ष की आयु में मगध की राज गद्दी संभालने वाली चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी प्रधानमंत्री चाणक्य की सहायता से मगध में राज्य चक्र के सिद्धांतों को लागू किया शक, यमन की रात, कंबोज, पारसी आदि स्वरूप जीबी श्रेणियों के साथ उन्होंने विशाल सेना का निर्माण किया और पश्चिमी पंजाब और सिंध के युवकों को मारकर वह प्रांत मगध साम्राज्य के अधीन कर लिया।

प्लुटार्क ने वर्णन किया है कि सेंड्रोकोटस अर्थात चंद्रगुप्त ने छह लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंदा ला था जिस कारण जिस कारण चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिंदूकुश पर्वत से लेकर उत्तर में कश्मीर पूर्व में नेपाल, बांग्लादेश दक्षिण में आंध्र, कर्नाटक और पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैल गया था चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण विजय की जानकारी हमें अशोक के अभिलेखों के साथ-साथ तमिल ग्रंथ अन्नानूर एवं मुन्नानूर से प्राप्त होती है बंगाल विजय की जानकारी हमें महास्थान अभिलेख से प्राप्त होती है तो सौराष्ट्र विधि की जानकारी हमें महाक्षत्रक रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से प्राप्त होती है।

चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्युकस निकेटर संघर्ष

चंद्रगुप्त मौर्य का अंतिम युद्ध सिकंदर की पूर्व सेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट सेल्यूकस निकेटर के साथ हुआ ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के पश्चात सेल्यूकस को सिकंदर के साम्राज्य का पूर्विभाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ इसीलिए सेल्यूकस अब सिकंदर कि भारत विजय अधूरी कहानी को पूरा करने के लिए 305 ईसा पूर्व में भारत की तरफ बढ़ा और सिंधु नदी के किनारे आकर उपस्थित हुआ किंतु भारत की राजनीतिक स्थितिया अब पहले से काफी बदल चुकी थी।

भारत एक संगठित और शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में आ चुका था सिंधु नदी के किनारे चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के बीच युद्ध हुआ और युद्ध में चंद्रगुप्त की शक्ति के सामने सेल्यूकस को झुकना पड़ा शीघ्र संधि हुई और उस संधि में सेल्यूकस को हेरात, कन्दहार, काबुल और बलूचिस्तान इन प्रांतों के साथ-साथ अपनी पुत्री हेलेना का विवाह भी चंद्रगुप्त मौर्य के साथ करवाना पड़ा इस संधि के कारण मौर्यो के यूनानी यों के साथ पारिवारिक संबंध प्रस्तावित हुए।

इन्हीं संबंधों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सेल्यूकस ने मेगस्थनीज नाम का एक दूत चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा 304 ईसा पूर्व से लेकर 299 ईसा पूर्व तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहे मेगस्थनीज ने अपने अनुभव को इंडिका नामक ग्रंथ में वर्णित किया हुआ है चंद्रगुप्त मौर्य ने भी इस संधि के बदले सेल्यूकस को 500 हाथी भेट में दिए यूनानीयों पर चंद्रगुप्त मौर्य के विजय की इस घटना को भारतीय इतिहास में बेहद ही महत्वपूर्ण स्थान है।

क्योंकि इस विषय के बाद चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तक तो उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कर्नाटक, मैसूर तक फैल चुका था अपने जीवन के अंतिम चरण में चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने पुत्र के पक्ष में सिहासन छोड़ा और वे जैन मुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा लेकर श्रवणबेलगोला मैसूर चले गए और वहीं पर 298 ईसा पूर्व में उन्होंने सल्लेखना उपवास विधि के द्वारा अपने शरीर को त्याग दिया मौर्य साम्राज्य की स्थापना करने वाले चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के एक महान सम्राट थे।

संपूर्ण भारत को एक छत्र के अधीन लाने वाले चंद्रगुप्त मौर्य के पश्चात उनके पुत्र बिंदुसार और बिंदुसार के पुत्र अशोक ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया।

बिन्दुसार

मात्र 22 वर्ष की आयु में सम्राट बनी बिंदुसार को इतिहास में अमित्रघात, सिंहसेन, भद्रसाल और अजातशत्रु वरीशा ऐसे कई सारे नामों से जाना जाता है अमित्रघात शब्द का अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाला संभवत यह बिरुदावली बिंदुसार ने किसी विजय के उपलक्ष में धारण की होगी लेकिन किस विषय के उपलक्ष में धारण की होगी इसे ज्ञात करना कठिन हो जाता है यूनानी इतिहासकार इसी बिरुदावली के अनुरूप बिंदुसार को अमित्रचेट्स, अमित्रकेट्स, अमित्रोकेडिज् और अमित्रकेटे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।

जैन ग्रंथ ‘राजवलिकथे’ में बिंदुसार को सिंहसेन तो ‘वायुपुराण’ में बिंदुसार को भद्रसार कहा गया है अपने पिता चंद्रगुप्त मौर्य की तरह ही बिंदुसार भी विद्वानों और दार्शनिकों का आदर करते थे यूनानी इतिहासकार स्ट्रेबो (Strabo) के अनुसार सीरिया के तत्कालीन शासक तथा सेलुकस निकेटर के उत्तराधिकारी एण्टियोकस प्रथम ने अपने राजदूत ‘डायमेकश’ को बिंदुसार के दरबार में भेजा था तो रोमन इतिहासकार ‘प्लिनी (PLINY)’ के अनुसार ‘टोलमी द्वितीय फिइलेडेल्फस’ ने भी अपने राजदूत ‘डायोनियस’ को बिंदुसार के दरबार में नियुक्त किया था।

इससे यह प्रतीत होता है कि बिंदुसार के समय में भी मौर्यों के यूनानीयो और अन्य विदेशियों के साथ संबंध अच्छे रहे थे कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि बिंदुसार एक विलासिता पूर्ण जीवन जीने वाले निष्क्रिय राजा रहे होंगे क्योंकि उन्होंने सीरिया के राजा ‘एंटीयोकस प्रथम’ को पत्र लिखकर उनसे मीठी मदिरा की मांग की थी तथा उनके कार्यकाल में हुए विद्रोह को दबाने के लिए उन्होंने खुद की जगह अपने पुत्रों को भेजना उचित समझा।

बौद्ध ग्रंथ दिव्य व दान के अनुसार बिंदुसार के कई पुत्र थे जिनमें से सबसे बड़े पुत्र थे ‘सुसेम’ जो कि पश्चिमोत्तर भारत अर्थात तक्षशिला के प्रशासक थे दिव्य व दान में वर्णन है कि सुशील के कु प्रशासन से त्रस्त होकर तक्षशिला में लोगों ने विद्रोह किया इस विद्रोह को दबाने के लिए बिंदुसार ने अशोक को तक्षशिला भेजा मालवा और उज्जैन में प्रशासक रहे अशोक ने बड़ी ही कुशलता से तक्षशिला के मित्रों को दबाया और वहां की जनता को शांत किया इससे मौर्य दरबार में अशोक का प्रभाव बढ़ा।

और वह उत्तराधिकारीयों की सत्ता संघर्ष में सबसे शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर सामने आए वैसे सुसीम बिंदुसार के सबसे जेष्ठ पुत्र थे और इसी कारण में स्वाभाविक रूप से मौर्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी थे लेकिन अशोक की महत्वाकांक्षा के समक्ष सुसीम नहीं टिक पाए बिंदुसार की जीवन के अंतिम दिनों में उत्तराधिकारीयों के बीच सत्ता का यह संघर्ष और भी तीव्र हुआ जिसके परिणामों को देखने से पहले ही ईसा पूर्व 273 में बिंदुसार की मृत्यु हुई और फिर सुसीम समेत अपने अन्य भाइयों को मारकर अशोक मौर्य साम्राज्य के अगले सम्राट बने।

सम्राट अशोक

चरित्र जिनकी तुलना विश्व में किसी से नहीं की जा सकती भारतीय मौर्य साम्राज्य के शासक थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था इनका पूरा नाम अशोक बिंदुसार मौर्य है और उनका जन्म स्थान पाटलिपुत्र में पिता का नाम राजा बिंदुसार अशोक मौर्य शासक बिंदुसार और माता शुभ द्रागीं के बेटे के रूप में और मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के पोते के रूप में जन्म लिया इनका पूरा नाम देवा नाम प्रिय अशोक मौर्य जो कि राजा प्रियदर्शी देवताओं के प्रिय थे उन्हें मौर्य साम्राज्य का तीसरा शतक माना जाता है ऐसा कहा जाता है कि सम्राट अशोक को कुशल सम्राट बनाने में आचार्य चाणक्य का बहुत बड़ा योगदान रहा।

अल्पायु में ही उनमें लड़ने के गुण दिखाई देने लगे थे इसीलिए उन्हें शाही प्रशिक्षण दिया गया वे उच्च श्रेणी के शिकारी भी कहलाते हैं उन्होंने केवल लकड़ी की छड़ी से शेर का शिकार किया था जिंदादिल शिकारी और साहसी योध्या उनके इसी गुणों के कारण उन्हें उस समय मौर्य साम्राज्य के अवंती में हो रहे दंगों को रोकने के लिए भेजा था मौर्य साम्राज्य सम्राट अशोक ने अफगानिस्तान के हिंदुकुश में अपने साम्राज्य का विस्तार किया था उनके साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र जोकि मगध आज का बिहार है उपराजधानी तक्षशिला और उज्जैन भी थी अशोक ने अपने आप को कुशल प्रशासक शब्द करते हुए 3 साल के अंदर ही राज्य में शांति स्थापित की।

अशोक के शासनकाल में देश ने विज्ञान और तकनीक के साथ-साथ चिकित्सा में काफी तरक्की की उन्होंने धर्म पर इतना जोर दिया कि प्रजा ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलने लगी चोरी और लूटपाट की घटनाएं बिल्कुल बंद हो गई अशोक मानवतावादी थे जनता की भलाई के लिए काम किया करते थे उन्हें किसी भी हिस्से में होने वाली घटना की जानकारी धर्म के प्रति आस्था थी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह बिना 1000 ब्राह्मणों को भोजन कराएं स्वयं कुछ नहीं खाते थे कलिंग युद्ध अशोक के जीवन का आखिरी युद्ध था जिससे उनका जीवन ही बदल गया।

अशोक ने कलिंग राज्य के खिलाफ विध्वंशकारी युद्ध की घोषणा की थी उन्होंने कलिंग पर जीत हासिल की इससे पहले उनकी किसी पूर्वज ने ऐसा नहीं किया था

कलिंग के युद्ध में कई लोगों की मृत्यु होने के बाद अशोक ने बुद्ध धर्म को अपना लिया था कहा जाता है कि अशोक के कलिंग युद्ध में तकरीबन 100000 लोगों की मौत हुई थी और डेढ़ लाख लोग घायल हुए थे इस युद्ध में हुए भारी रक्तपात ने अशोक को हिला कर रख दिया उन्होंने सोचा की ये सब लालच का दुष्परिणाम और जीवन में फिर कभी युद्ध ना करने का प्रण लिया इसने धर्म परिवर्तन का मन बना लिया उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया और अहिंसा के पुजारी हो गए बाद में उन्होंने पूरे एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए स्तंभों और सुखों का निर्माण करवाया।

अशोक के अनुसार बुद्ध धर्म सामाजिक और राजनीतिक एकता वाला धर्म था बुध का प्रचार करने के लिए उन्होंने अपने राज्य में जगह-जगह पर भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं स्थापित और बुद्ध धर्म का विकास करते चले गए बौद्ध धर्म को अशोक नहीं विश्व धर्म के रूप में मान्यता दिलाई विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को भिक्षु भिक्षुणी के रूप में भारत से बाहर भेजा सार्वजनिक कल्याण के लिए उन्होंने जो कार्य किए वह इतिहास में अमर हो गए नैतिकता उदारता भाईचारे का संदेश देने वाले अशोक ने कई अनुपम भवनों और देश के कोने कोने में और शिलालेखों का निर्माण भी कराया।

जिनपर बौद्ध धर्म के संदेश अंकित थे भारत का राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चक्र और शेर की त्रिमूर्ति भी अशोक महान की देन है यह कृतियां अशोक निर्मित स्तंभों और स्तूपों पर अंकित है सम्राट अशोक का अशोक चक्र जिसे धर्म चक्र भी कहा जाता है आज में भारतीय गणराज्य के तिरंगे के बीच में दिखाई देता है त्रिमूर्ति सारनाथ जो कि वाराणसी में है वहा के बौद्ध स्तूप के स्तंभों पर निर्मित शीला मूर्तियों की प्रतिकृति है अशोक का अर्थ दर्द रहित या फिर चिंता मुक्त होता है अपने आदेश पत्र में उन्हें देवनाम्प्रिया और प्रियदर्शन कहा जाता है कहा जाता है कि सम्राट अशोक का नाम अशोक के पेड़ से ही लिया गया था।

भारतीय इतिहास का यही चमकता तारा सम्राट अशोक है एक विजेता दार्शनिक शासक के रूप में उनका नाम अमर रहेगा उन्होंने जो त्याग और कार्य किए वैसा अन्य कोई नहीं कर सकता सम्राट अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया पूर्व 232 के आसपास उनकी मृत्यु हुई।

दशरथ मौर्य

दशरथ मौर्य मौर्य साम्राज्य के चौथे राजा बने सम्राट अशोक इनके दादा थे दशरथ मौर्य ने 232 ईसा पूर्व मौर्य साम्राज्य की कमान संभाली थी सम्राट अशोक की तरह ही अपने जीवन काल में अनेक गुफाओं का निर्माण करवाने वाले दशरथ मौर्य ने अजीवको के रहने के लिए विहार स्थित नागार्जुन की पहाड़ियों को दान कर दिया था इन पहाड़ियों की गुफाओं पर उत्तीर्ण अभिलेखों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि अपने दादा सम्राट अशोक की भांति दशरथ मौर्य को भी देवताओं का प्रिय अर्थात देवा नाम प्रिया नाम से जाना जाता था।

दशरथ मौर्य धर्म का अनुयाई था या नहीं इसका उल्लेख भी नहीं मिलता है पुराणों से मिले प्रमाणों के अनुसार राजा दशरथ ने मौर्य साम्राज्य पर लगभग 8 वर्षों तक राज किया था सम्राट अशोक के बाद उत्तराधिकारियों की बात की जाए तो दशरथ और सम्प्रति का सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है जब राजा दशरथ ने मौर्य समाज की कमान संभाली उस वक्त मौर्य साम्राज्य लगातार गिरता जा रहा था राजा दशरथ के कार्यकाल के दौरान कई राज्य केंद्रीय नेतृत्व से अलग हो गए और स्वतंत्र हो गए राजा दशरथ ने सम्राट अशोक द्वारा लागू किए गए नियमों धार्मिक और सामाजिक नीतियों को जारी रखा।

सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात इतिहासकार रोमिला थापर और विशेष स्मिथ ने लिखा कि दशरथ और कुणाल को बीच राज्य को लेकर विवाद हुआ था मौर्य के तृतीय राजा सम्राट अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य में सक्तिसाली नहीं हुआ इसलिए इनका इतिहास में बहुत कम उल्लेख मिलता है 12 बर और नागार्जुन की गुफाओं में दशरथ मौर्य द्वारा लिखित शिलालेख मिलते हैं जो उसके इतिहास के प्रमाण माने जाते हैं यह शिलालेख दशरथ मौर्य के शासनकाल को भी दर्शाते हैं इन नेताओं के नाम गोपीका, पत्रिका और वादिया है यहां लगभग 200 ईसा पूर्व की बात है।

इन अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस समय मौर्यों का बौद्ध धर्म अनन्य धर्म नहीं था इन गुफाओं की दीवारों पर निर्माण ग्रेनाइट से हुआ है मौर्यकालीन पॉलिसी शानदार तरीके से सजाया गया है इस प्रकार यहां मौर्यकालीन उत्कृष्ट कला का अद्भुत नमूना है गुफा के बाहर प्रवेश द्वार पर दशरथ मौर्य का वैदिक शिलालेख मौजूद है मौर्य वंश के बड़े शहरों में शामिल राजा दशरथ का सामान्य रूप से 224 ईसा पूर्व में मृत्यु हो गई।

संप्रति मौर्य

संप्रति मौर्य राजा भारत के प्रसिद्ध राजाओं में से एक हैं और सम्राट अशोक के पोते हैं उनका जन्म और पालन-पोषण उज्जैन में हुआ उनके पिता कुणाल से जो नेत्रहीन थे और माता कंचनमाला थी कुणाल के अंधेपन के कारण उसके चचेरे भाई दशरथ ने उसे और उसके बेटे संप्रति को राजगद्दी से वंचित कर दिया उनके समय में उनका राज्य मौर्य साम्राज्य के अधीन था जिसके वजह से संप्रति और कुणाल दोनों ने तत्कालीन मौर्य साम्राज्य के दरबार का दरवाजा खटखटाया और अशोक से सिंहासन के दावे के लिए न्याय मांगा।

तब अशोक ने संप्रति के प्रशासन कौशल और युद्ध कौशल से प्रभावित होकर संप्रति को दशरथ का उत्तराधिकारी घोषित किया सम्राट अशोक की घोषणा के कारण दशरथ की मृत्यु के बाद संप्रति को सिंहासन विरासत में मिला और 230 बीसी में राजगद्दी पर बैठा लेकिन बहुत पहले से प्रशासनिक कर्तव्यों को संभाल रहा था संप्रति मौर्य राजा का जैन धर्म में योगदान इसलिए संप्रति में अपनी प्रजा के सुशासन के पक्ष में कुशल प्रशासन और सराहनीय निर्णय के साथ उज्जैन पर शासन किया जैन परंपरा के अनुसार उन्होंने 53 वर्षों तक शासन किया।

सम्प्रति जैन धर्म के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित थी और उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को फैलाने के लिए विद्वानों को विदेशों में भेजा जैन शास्त्रों के अनुसार संप्रति ने पाटिलीपुत्र वर्तमान पटना, बिहार और उज्जैन दोनों से शासन किया संप्रति और बौद्ध धर्म सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए प्रसिद्ध थे उसी तरह संप्रति को भी जैन धर्म को पूरी दुनिया में फैलाने के अपने अंतिम प्रयासों के लिए जान शॉप के रूप में माना जाता है।

उन्होंने जैन धर्म को सभी संभव तरीकों से फैलाने के लिए बहुत मेहनत की और जैन धर्म ग्रंथों को अस्तित्व में लाया मरम्मत के लिए मौजूदा मंदिरों पर ही ध्यान केंद्रित किया उन्होंने जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और उन सभी मंदिरों में सोने, चांदी और अन्य धातुओं के मिश्रण से से बनी पवित्र मूर्तियों की स्थापना की संप्रति ने 3.5 साल के भीतर 1,500 मंदिरों का निर्माण किया और 36,000 मंदिरों की और 95,000 धातु संरचनाओं की स्थापना के लिए बहुत शानदार थी।

संप्रति अपने जीवन में शांति और सिद्धांतों को ध्यान केंद्रित किया संप्रति व्यापक रूप से धार्मिक को लोगों के बीच सद्भाव और लोगों के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए प्रोत्साहित किया जैन धर्म में उनका योगदान जैन धर्म का कारण था महान शांतिप्रिय और जैन धर्म के भक्त और एक शक्तिशाली राजा समृद्धि मौर्य की मृत्यु 190 ईसा पूर्व हुई थी।

शालिसुक मौर्य

शालिसुक मौर्य मौर्य साम्राज्य के छठवें राजा थे शालिसुक को मौर्य साम्राज्य का राजा दशरथ की मृत्यु के बाद बनाया गया था एक प्रकार से शालिसुक को अपने पिता के वचन के कारण ही मौर्य साम्राज्य का राजा बनाया गया था क्योंकि अशोक ने कुणाल से वादा किया था कि दशरथ की मृत्यु के बाद उनके बेटे को राजा बनाया जाएगा शालिसुक ने मौर्य साम्राज्य में 215 ईसा पूर्व से लेकर 202 ईसा पूर्व तक राज्य किया कहा जाता है।

कि शालिसुक के समय में मौर्य साम्राज्य काफी कमजोर हो गया था और यह अपना ज्यादातर समय जैन धर्म का प्रचार करने में अपना अधिक समय दिया इसकी वजह से इतिहास के पन्नों में उनका काफी कम व्याख्यान देखने को मिलता है।

देववर्मन

देववर्मन जोकि मौर्य के ही राजा थे साली सुख मौर्य के बाद राजपाट इन्होंने ही संभाला था कहा जाता है कि देववर्मन ने 232 ईसा पूर्व से 224 ईसा पूर्व तक मौर्य साम्राज्य में राजा बनकर अपना कार्य किया इन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया था इसके वजह से यह भी अपना समय बौद्ध धर्म को ही देते थे बल्कि इनके पहले के राजा साली सुख मौर्य जैन धर्म को अपनाया था लेकिन देववर्मन ने बौद्ध धर्म को अपनाया और राज्यपाल के साथ-साथ बहुत धर्म के लिए भी काम किया।

शतधन्वन मौर्य

सत शतधन्वन मौर्य कॉम 2 नामों से जाना जाता था इनका एक और नाम जो कि शतधनुष था इन्होंने मौर्य साम्राज्य में 195 ईसा पूर्व से 187 साल पूर्व तक कुशलतापूर्वक राज्य किया इनके बारे में भी हमारे इतिहास में कुछ ज्यादा जानकारियां नहीं हैं और उन्होंने किस धर्म को अपनाया और किस धर्म का प्रचार प्रसार किया इसके बारे में भी जानकारी दी हास के पन्नों में नहीं है इनको पुराणों में भी जाना जाता है लेकिन इतिहास के पन्नों में इनकी कुछ ज्यादा जानकारियां देखने को नहीं मिलती है।

ब्रहद्रथ मौर्य

बृहद्रथ मौर्य को सत्य शतधन्वन मौर्य के बाद मौर्य साम्राज्य का राजा बनाया गया इन्होंने मौर्य साम्राज्य में 187 ईसा पूर्व से लेकर 180 ईसा पूर्व तक राज्य किया इनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने इनकी इनकी हत्या कर दी और उसके बाद पुष्यमित्र शुंग ने खुद का शुंग सम्राज्य की स्थापना की।

मौर्य साम्राज्य का पतन

देखिए मौर्य समाज के पतन के बहुत से कारण थे जैसा कि आपने ऊपर पड़ा सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य में कोई धाकड़ राजा पैदा नहीं हुआ और ना ही अशोक सम्राट जैसा बलशाली और बुद्धिमान जोकि राज्य को अच्छे से चला सके और ऐसे में मौर्य साम्राज्य का खत्म होना निश्चित ही था और साथ में यह केवल एक ही कारण है धाम मौर्य साम्राज्य के खत्म होने के और अन्य कारण भी थे जैसे कि मौर्य साम्राज्य काफी बड़ा साम्राज्य था जिसकी वजह से इसको चलाने के लिए काफी धन की आवश्यकता पड़ती थी।

लेकिन अशोक के बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए ज्यादा धन खर्च कर देते थे जिसकी वजह से राजपाट को चलाने के लिए आवश्यक धन पूरा नहीं हो पाता था और साथ ही में आयोग उत्तराधिकारी यों के कारण राज्य सही से नहीं चल पा रहा था और इसी बीच मौर्य साम्राज्य के अंतिम राजा दर्द मौर्य को उनके सेनापति ने ही मौत के घाट उतार दिया और इसके बाद सूक्ष्म राज्य की स्थापना उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी।

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